बुधवार, 19 सितंबर 2007

जोगी के पंद्रह मुक्तक

किसी गीता से न कुरआँ से अदा होती है
न बादशाहों की दौलत से अता होती है
रहमतें सिर्फ़ बरसती हैं उन्हीं लोगों पर
जिनके दामन में बुज़ुर्गों की दुआ होती है।

हर इक मूरत ज़रूरत भर का पत्थर ढूँढ लेती है
कि जैसे नींद अपने आप बिस्तर ढूँढ लेती है
चमन में फूल खिलता है तो भौंरें जान जाते हैं
नदी खुद अपने कदमों से समंदर ढूँढ लेती है।

लगे हैं फ़ोन जब से तार भी नहीं आते
बूढ़ी आँखों के मददगार भी नहीं आते
गए हैं जब से कमाने को शहर में लड़के
हमारे गाँव में त्यौहार भी नहीं आते।

बहारें रूठ जाएँ तो मनाने कौन आता है
सवेरे रोज़ सूरज को जगाने कौन आता है
बड़े होटल में बैरे रोटियाँ गिन गिन के देते हैं
वहाँ अम्मा की तरह से खिलाने कौन आता है।

कोई श्रृंगार करता है, तो दरपन याद आता है
बियाही लड़कियों को जैसे, सावन याद आता है
वो बारिश में नहाना, धूप में नंगे बदन चलना
पुराने दोस्त मिलते हैं, तो बचपन याद आता है।

जो भी होता है वो, इस दौर में कम लगता है
हर एक चेहरे पे दहशत का भरम लगता है
घर से निकला है जो स्कूल को जाने के लिए
अब तो उस बच्चे के बस्ते में भी बम लगता है।

नए साँचे में ढलना चाहता है
गिरा है, फिर संभलना चाहता है
यहाँ दुनिया में हर इक जिस्म
'जोगी'पुराना घर बदलना चाहता है।

मैं बेघर हूँ, मेरा घर जानता है
बहुत जागा हूँ, बिस्तर जानता है
किसी दरिया को जाकर क्या बताऊँ
मैं प्यासा हूँ, समंदर जानता है।

मैं कलाकार हूँ, सारी कलाएँ रखता हूँ
बंद मुट्ठी में आवारा हवाएँ रखता हूँ
क्या बिगाड़ेंगी ज़माने की हवाएँ मेरा
मैं अपने साथ में माँ की दुआएँ रखता हूँ।

खुशी का बोलबाला हो गया है
अंधेरे से उजाला हो गया है
पड़े हैं पाँव जब से माँ के 'जोगी'
मेरा घर भी शिवाला हो गया है।

छोटे से दिल में अपने अरमान कोई रखना
दुनिया की भीड़ में भी पहचान कोई रखना
चारों तरफ़ लगा है बाज़ार उदासी का
होठों पे अपने हरदम, मुस्कान बनी रखना।

जो नहीं होता है उसका ही ज़िकर होता है
हर इक सफ़र में मेरे साथ में घर होता है
मैं इक फ़कीर से मिलकर ये बात जान गया
दवा से ज़्यादा दुआओं में असर होता है।

कहाँ मिलते हैं भला साथ निभाने वाले
हमने देखे हैं बहुत छोड़ के जाने वाले
यहाँ कुछ लोग दिखावा पसंद होते हैं
दिल मिलाते ही नहीं, हाथ मिलाने वाले।

हमारे दिन की कभी, रात नहीं होती है
भरे सावन में भी बरसात नहीं होती है
यों तो हम सारे ज़माने से रोज़ मिलते हैं
हमारी खुद से मुलाक़ात नहीं होती है।

दर्द की दास्तान बाकी है
अभी इक इम्तहान बाकी है
फिर सताने के लिए आ जाओ
दिल ही टूटा है, जान बाकी है।

होठों पे मोहब्बत का तराना नहीं रहा
पहले की तरह दिल ये दीवाना नहीं रहा
मुद्दत के बाद आज ये मन फिर उदास है
लगता है कोई दोस्त पुराना नहीं रहा।

DR. SUNIL JOGI DELHI, INDIA
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